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अथ सुमिरण का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ सुमिरण का अंग

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाणि।
राम नाम सद्गुरु कह्या, दादू सो परवाणि॥2॥
पहली श्रवण द्वितीय रसन, तृतीय हिरदै गाय।
चतुर्थी चिंतन भया, तब रोम-रोम ल्यौ लाय॥3॥

मन प्रबोध

दादू नीका नाम है, तीन लोक तत सार।
रात दिवस रटबौ करी, रे मन इहै विचार॥4॥
दादू नीका नाम है, हरि हिरदै न विसार।
मूर्ति मन माँहीं बसे, श्वासैं श्वास संँभार॥5॥
श्वासैं श्वास सँभालतां, इक दिन मिलि है आय।
सुमिरण पैंडा सहज का, सद्गुरु दिया बताय॥6॥
दादू नीका नाम है, सो तू हिरदै राखि।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सुनि साधु जन की साखि॥7॥
दादू नीका नाम है, आप कहै समझाय।
और आरंभ सब छाड़ि दे, राम नाम ल्यौ लाय॥8॥
राम भजन का सोच क्या, करतां होइ सो होय।
दादू राम सँभालिये, फिर बूझिये न कोय॥9॥

नाम चेतावनी

राम तुम्हारे नाम बिन, जे मुख निकसे और।
तो इस अपराधी जीव को, तीन लोक कित ठौर॥10॥
छिन-छिन राम सँभालतां, जे जिव जाय तो जाय।
आतम के आधार को, नाहीं आन उपाय॥11॥

सुमिरण माहात्म्य

एक महूरत मन रहै, नाम निरंजन पास।
दादू तब ही देखतां, सकल करम का नास॥12॥
सहजैं ही सब होइगा, गुण इन्द्री का नास।
दादू राम सँभालतां, कटै कर्म के पास॥13॥

नाम चिंतावणी

एक राम के नाम बिन, जीवन की जलनी न जाय।
दादू केते पचि मुये, करि करि बहुत उपाय॥14॥
दादू एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाय।
राम नाम छाडै नहीं, दूजा आवै जाय॥15॥

नाम अगाधता

दादू राम अगाध है, परिमित नाँही पार।
अवर्ण वर्ण न जाणिये, दादू नाम अधार॥16॥
दादू राम अगाध है, अविगति लखै न कोइ।
निर्गुण सगुण का कहै, नाम विलम्ब न होइ॥17॥
दादू राम अगाध है, बेहद लख्या न जाय।
आदि अंत नहिं जाणिये, नाम निरंतर गाय॥18॥
दादू राम अगाध है, अकल अगोचर एक।
दादू नाम विलंबिये, साधू कहैं अनेक॥19॥
दादू एकै अल्लह राम है, समर्थ सांई सोय।
मैदे के पकवान सब, खातां होय सु होय॥20॥
सगुण निर्गुण ह्वै रहे, जैसा है तैसा लीन।
हरि सुमिरण ल्यौ लाइये, का जाणौं का कीन॥21॥

नाम चित्त आवे सो लेय

दादू सिरजनहार के, केते नाम अनंत।
चित आवै सो लीजिये, यूँ साधू सुमरैं संत॥22॥
दादू जिन प्राण पिंड हम कूं दिया, अंतर सेवैं ताहि।
जे आवै औसाण शिर, सोई नाम संबाहि॥23॥

चिंतावणी

दादू ऐसा कौण अभागिया, कछू दिढावे और।
नाम बिना पग धरन कौं, कहो कहाँ है ठौर॥24॥
दादू निमष न न्यारा कीजिए, अंतर तैं उर नाम।
कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम॥25॥

मन प्रबोध

दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार।
फिर पीछे पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार॥26॥
दादू राम सँभालि ले, जब लग सुखी शरीर।
फिर पीछैं पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर॥27॥
दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम।
सुख सागर चलि जाइये, दादू तज बेकाम॥28॥
दादू दरिया यह संसार है तामें राम नाम जिन नाव।
दादू ढील न कीजिए, यहु औसर यहु डाव॥29॥

सुमिरण नाम निःसंशय

मेरे संशा को नहीं, जीवण-मरण का राम।
सपनैं ही जिन बीसरै, मुख हिरदै हरिनाम॥30॥

सुमिरण नाम विरह

दादू दुखिया तब लगै, जब लग नाम न लेह।
तब ही पावन परम सुख, मेरी जीवनि येह॥31॥

सुमिरण नाम परीक्षा लक्षण

कछू न कहावै आपकौं, सांई कूं सेवै।
दादू दूजा छाडि सब, नाम निज लेवै॥32॥

सुमिरण नाम निःसंशय

जे चित चहुँटे राम सौं, सुमिरण मन लागै।
दादू आतम जीव का, संशा सब भागै॥33॥

सुमिरण नाम चिंतावणी

दादू पिव का नाम ले, तौ हि मिटे शिर साल।
घड़ी महूरत चालणां, कैसी आवै कालि॥34॥

सुमिरण बिना श्वास न ले

दादू औसर जीव तैं, कह्या न केवल राम।
अंतकाल हम कहैंगे, जम वैरी सौं काम॥35॥
दादू ऐसे महँगे मोल का, एक श्वास ले जाय।
चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाय॥36॥

अमोलक श्वास

सोइ श्वास सुजाण नर, सांई सेती लाइ।
करि साटा सिरजनहार सूं, महँगे मोल बिकाइ॥37॥

व्यर्थ जीवन

जतन करे नहिं जीव का, तन मन पवना फेरि।
दादू महँगे मोल का, द्वै दोवटी इक सेर॥38॥

सफल जीवन

दादू रावत राजा राम का, कदे न विसारी नाँव।
आतम राम सँभालिये, तो सु बस काया गाँव॥39॥

निरंतर सुमिरण

दादू अहनिश सदा शरीर में हरि, चिन्तन दिन जाय।
प्रेम मगन लै लीन मन, अन्तर गति ल्यौ लाय॥40॥
निमष एक न्यारा नहीं, तन मन मंझि समाय।
एक अंग लागा रहै, ताकूं काल न खाय॥41॥
दादू पिंजर पिंड शरीर का, सुवटा सहज समाय।
रमता सेती रमि रहै, विमल-विमल जश गाय॥42॥
अविनाशी सूं एक ह्वै, निमष न इत उत जाय।
बहुत बिलाई क्या करे, जे हरि-हरि शब्द सुनाय॥43॥
दादू जहाँ रहूँ तहँ राम सूं, भावै कंदलि जाय।
भावै गिरि परबत रहूँ, भावै गेह बसाय॥44॥
भावै जाइ जलहरि रहूँ, भावै शीश नवाय।
जहाँ तहाँ हरि नाम सूं हिरदै हेत लगाय॥45॥

मन प्रबोध

दादू राम कहे सब रहत है, नख शिख सकल शरीर।
राम कहे बिन जात है, समझी मनवा वीर॥46॥
दादू राम कहे सब रहत है, लाहा मूल सहेत।
राम कहे बिन जात है, मूरख मनवा चेत॥47॥
दादू राम कहे सब रहत है, आदि अन्त लौं सोय।
राम कहे बिन जात है, यहु मन बहुरि न होय॥48॥
दादू राम कहे सब रहत है, जीव ब्रह्म की लार।
राम कहे बिन जात है, रे मन हो हुशियार॥49॥

परोपकार

हरि भज सफल जीवणा, पर उपकार समाय।
दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पक्षी खाय॥50॥

सुमिरण

दादू राम शब्द मुख ले रहै, पीछै लागा जाय।
मनसा वाचा करमना, तिहिं, तत सहजि समाय॥51॥
दादू रचि मचि लागे नाम सौं, राते माते होय।
देखेंगे दीदार कूं, सुख पावैंगे सोय॥52॥

चेतावणी

दादू सांई सेवै सब भले, बुरा न कहिये कोइ।
सारौं माँही सो बुरा, जिस घट नाम न होइ॥53॥
दादू जियरा राम बिन, दुखिया इहि संसार।
उपजै विनशै खपि मरे, सुख दुख बारंबार॥54॥
राम नाम रूचि ऊपजे, लेवे हित चित लाय।
दादू सोई जीयरा, काहे जमपुरि जाय॥55॥
दादू नीकी बरियाँ आय करि, राम जप लीन्हा।
आतम साधन सोधि करि, कारज भल कीन्हा॥56॥
दादू अगम वस्तु पानैं पड़ी, राखी मांझि छिपाय।
छिन-छिन सोई संभालिये, मति वै बीसर जाय॥57॥

सुमिरण नाम माहात्म्य

दादू उज्ज्वल निर्मला, हरि रँग राता होय।
काहे दादू पचि मरे, पानी सेती धोय॥58॥
शरीर सरोवर राम जल, माँहैं संयम सार।
दादू सहजैं सब गये, मन के मैल विकार॥59॥
दादू राम नाम जलं कृत्त्वा, स्नानं सदा जितः।
तन मन आतम निर्मलं, पचं भू पापं गतः॥60॥
दादू उत्तम इन्द्री निग्रहं, मुच्यते माया मनः।
परम पुरुष पुरातनं, चिन्तते सदा तनः॥61॥
दादू सब जग विष भरा, निर्विष विरला कोय।
सोई निर्विष होयगा, जाके नाम निरंजन होय॥62॥
दादू निर्विष नाम सौं, तन मन सहजैं होय।
राम निरोगा करेगा, दूजा नाहीं कोय॥63॥
ब्रह्मभक्ति जब ऊपजे, तब माया भक्ति विलाय।
दादू निर्मल मल गया, ज्यूँ रवि तिमिर नशाय॥64॥

मन हरि भाँवरि

दादू विषय विकार सूं, जब लग मन राता।
तब लग चित्त न आवई, त्रिभुवनपति दाता॥65॥
दादू का जाणैं कब होयगा, हरि सुमिरण इकतार।
का जाणौं कब छाड़ि है, यह मन विषय विकार॥66॥
है सो सुमिरण होता नहीं, नहीं सु कीजे काम।
दादू यहु तन यौं गया, क्यूँ करि पाइये राम॥67॥

सुमिरण नाम महिमा माहात्म्य

दादू राम नाम निज मोहनी, जिन मोहे करतार।
सुर नर शंकर मुनि जना, ब्रह्मा सृष्टि विचार॥67॥
दादू राम नाम निज औषधी, काटे कोटि विकार।
विषम व्याधि तैं ऊबरे, काया कंचन सार॥69॥
दादू निर्विकार निज नाम ले, जीवन इहै उपाइ।
दादू कृत्रिम काल है, ताके निकट न जाइ॥70॥

सुमिरण

मन पवना गहि सुरति सौं, दादू पावे स्वाद।
सुमिरण माँहीं सुख घणा, छाडि देहु बकवाद॥71॥
नाम सपीड़ा लीजिए, प्रेम भक्ति गुण गाय।
दादू सुमिरण प्रीति सैं, हेत सहित ल्यौ लाय॥72॥
प्राण कमल मुख राम कहि, मन पवना मुख राम।
दादू सुरति मुख राम कहि, ब्रह्म शून्य निज ठाम॥73॥
दादू कहतां सुनता राम कहि लेतां देतां राम।
खातां पीतां राम कहि, आत्म कमल विश्राम॥74॥
ज्यों जल पैसे दूध में, ज्यों पाणी में लौंण।
ऐसे आतम राम सौं, मन हठ साधे कौंण॥75॥
दादू राम नाम में पैसि करि, राम नाम ल्यो लाय।
यह इकंत त्रय लोक में, अनत काहे को जाय॥76॥

मध्य

ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नाम।
दादू उनमनी मन रहै, भला तो सोई ठाम॥77॥

नाम महिमा माहात्म्य

दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्ततं।
भरमं करमं किल्विषं, माया मोहं कंपितम्॥78॥
कालं जालं सोचितं, भयानक जम किंकरं।
हरषं मुदितं सद्गुरं, दादू अविगत दर्शनं॥79॥
दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि।
हरि सुख एक पलक का, ता सम कह्या न जाइ॥80॥

सुमिरण नाम पारख लक्षण

दादू राम नाम सब को कहे, कहिबे बहुत विवेक।
एक अनेकौं फिर मिलै, एक समाना एक॥81॥
दादू अपणी अपणी हद्द में, सबको लेवे नांउ।
जे लागे बेहद सौं, तिनकी मैं बलि जाउं॥82॥
कौण पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।
राम सरीखा राम है, सुमिर्यां ही सुख होय॥83॥
अपनी जाणे आप गति, और न जाणे कोइ।
सुमिर-सुमिर रस पीजिए, दादू आनँद होइ॥84॥

करणी बिना कथणी

दादू सब ही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार।
सब कुछ इनहीं माँहि है, क्या करिये विस्तार॥85॥

नाम अगाधता

पढ़-पढ़ थाके पंडिता, किनहुँ न पाया सार।
कथ-कथ थाके मुनि जना, दादू नाम अधार॥86॥
निगम हि अगम विचारिये, तउ पार न पावे।
तातैं सेवक क्या करे, सुमिरण ल्यौ लावे॥87॥

कथनी बिना करणी

दादू अलिफ एक अल्लाह का, जे पढ़ जाणै कोइ।
कुरान कतेबां इलम सब, पढ़कर पूरा होइ॥88॥
दादू यहु मन पिंजरा, माँही मन सूवा।
एक नाम अल्लाह का, पढ़ हाफिज हूवा॥89॥

सुमिरण नाम पारख लक्षण

नाम लिया तब जाणिये, जे तन मन रहै समाइ।
आदि अंत मध्य एक रस, कबहूँ भूलि न जाइ॥90॥

विरह पतिव्रत

दादू एकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाइ।
आपा भूलै आन सब, एकै रहै समाइ॥91॥

सुमिरण विनती

दादू पीवे एक रस, बिसरि जाय सब और।
अविगत यह गति कीजिए, मन राखो इहि ठौर॥92॥
आतम चेतन कीजिए, प्रेम रस पीवे।
दादू भूले देह गुण, ऐसै जन जीवे॥93॥

सुमिरण नाम अगाधता

कहि कहि केते थाके दादू, सुनि सुनि कहु क्या लेय।
लूंण मिले गलि पाणियाँ, ता सम चित यौं देय॥94॥
दादू हरि रस पीवतां, रती विलम्ब न लाय।
बारंबार सँभालिये, मति वै बीसरि जाय॥95॥

सुमिरण नाम विरह

दादू जागत सपना ह्वै गया, चिन्तामणि जब जाय।
तब ही साचा होत है, आदि अन्त उर लाय॥96॥
नाम न आवे तब दुखी, आवे सुख सन्तोष।
दादू सेवक राम का, दूजा हरख न शोक॥97॥
मिलै तो सब सुख पाइए, बिछुरे बहु दुख होय।
दादू सुख दुख राम का, दूजा नाहीं कोय॥98॥
दादू हरि का नाम जल, मैं मीन ता माँहि।
संग सदा आनन्द करे, बिछुरत ही मर जाँहि॥99॥
दादू राम विसार करि, जीवें किहिं आधार।
ज्यौं चातक जल बूँद कूँ, करे पुकार पुकार॥100॥
हम जीवें इहि आसिरे, सुमिरण के आधार।
दादू छिटके हाथ तैं, तो हमको वार न पार॥101॥

पति-व्रत निष्काम सुमिरण

दादू नाम निमित राम हि भजे, भक्ति निमित भज सोय।
सेवा निमित सांई भजे, सदा सजीवन होय॥102॥

नाम सम्पूर्ण

दादू राम रसायन नित चवै, हरि है हीरा साथ।
सो धन मेरे सांइयां, अलख खजीना हाथ॥103॥
हिरदै राम रहे जा जन के, ताको ऊरा कौन कहै।
अठ सिधि नौ निधि ताके आगे, सन्मुख सदा रहै॥104॥
वंदित तीनों लोक बापुरा, कैसे दरश लहै।
नाम निसान सकल जग उपरि, दादू देखत है॥105॥
दादू सब जग नीधना, धनवंता नहि कोय।
सो धनवंता जानिये, जाके राम पदारथ होय॥106॥
संगहि लागा सब फिरे, राम नाम के साथ।
चिन्तामणि हिरदै बसे, तो सकल पदारथ हाथ॥107॥
दादू आनँद आतमा, अविनाशी के साथ।
प्राणनाथ हिरदै बसे, तो सकल पदारथ हाथ॥108॥

पुरुष प्रकाशित

दादू भावे तहाँ छिपाइये, साच न छाना होय।
शेष रसातल गगन धू्र, परकट कहिये सोय॥109॥
दादू कहाँ था नारद मुनिजना, कहाँ प्रहलाद।
परकट तीनों लोक में, सकल पुकारैं साध॥110॥
दादू कहाँ शिव बैठा ध्यान धरि, कहाँ कबीरा नाम।
सौ क्यूँ छाना होयगा, जे रु कहेगा राम॥111॥
दादू कहाँ लीन शुकदेव था, कहाँ पीपा रैदास।
दादू साचा क्यों छिपे, सकल लोक परकास॥112॥
दादू कहाँ था गोरख थरथरी, अनंत सिधों का मंत।
परकट गोपीचन्द है, दत्त कहैं सब संत॥113॥
अगम अगोचर राखिए, कर कर कोटि जतन।
दादू छाना क्यों रहै, जिस घट राम रतन॥114॥
दादू स्वर्ग पयाल में, साचा लेवे नाम।
सकल लोक शिर देखिए, परकट सब ही ठाम॥115॥

सुमिरण लांबि रस

सुमिरण का संशय रह्या, पछितावा मन माँहि।
दादू मीठा राम रस, सगला पीया नाँहि॥116॥
दादू जैसा नाम था, तैसा लीया नाँहि।
हौंस रही यहु जीव में, पछितावा मन माँहि॥117॥

सुमिरण नाम चिंतावणी

दादू शिर करवत बहै, बिसरे आतम राम।
माँहि कलेजा काटिये, जीव नहीं विश्राम॥118॥
दादू शिर करवत बहै, राम हदै थें जाय।
माँहि कलेजा काटिये, काल दशों खाय॥119॥
दादू शिर करवत बहै, अंग परस नहिं होय।
माँहि कलेजा काटिये, यहु व्यथा न जाणे कोय॥120॥
दादू शिर करवत बहै, नैनहुँ निरखे नाँहि।
माँहि कलेजा काटिये, साल रह्या मन माँहि॥121॥
जेता पाप सब जग करे, तेता नाम बिसारे होइ।
दादू राम सँभालिये, तो येता डारे धोइ॥122॥
दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही मोटी मार।
खंड-खंड कर नाखिये, बीज पड़े तिहिं बार॥123॥
दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही झँपै काल।
शिर ऊपर करवत बहै, आइ पड़े जम जाल॥124॥
दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही कँध विनाश।
पग-पग परले पिंड पड़े, प्राणी जाइ निराश॥125॥
दादू जब ही राम बिसारिए, तब ही हाना होय।
प्राण पिंड सर्वस गया, सुखी न देख्या कोय॥126॥

नाम सम्पूर्ण

साहिबजी के नाम मां, विरहा पीड़ पुकार।
लै समाधि लागा रहे, दादू सांई पास॥128॥
साहिबजी के नाम मां, मति बुधि ज्ञान विचार।
प्रेम प्रीति सनेह सुख, दादू ज्योति अपार॥129॥
साहिबजी के नाम मां, सब कुछ भरे भंडार।
नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार॥130॥
जिसमें सब कुछ सो लिया, निरंजन का नांउ।
दादू हिरदै राखिये, मैं बलिहारी जांउ॥131॥

॥इति सुमिरण का अंग सम्पूर्ण॥