अदृश्य परदे के पीछे से 
दर्ज़ कराती जाती हूँ मै 
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा
अक्सर 
उन शामतों की शक्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी 
इन शक्लों की शुरूआत 
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै 
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से 
खाली नहीं हुई है दुनिया
खाली नहीं हुई है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै 
पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पड़ना चाहती हैं वे शक्लें
कि यही रिवाज है परंपरा है
कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को 
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है 
अपनी सहृदयता का , न्यायप्रियता का
उस उल्लास का 
जिससे मुझे हुलसाया था
और ठमक जाती हूँ मै 
सोचती हुई- 
क्या चेहरे की चमक 
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफ़ी नहीं जीने के लिए
सोच ही रही होती हूँ कि
फ़ैसला आ जाता है परमपिताओं का
और चीख़ उठती हूँ -
हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो!