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अधखुले पन्ने का सच / निरुपमा सिन्हा

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इधर से उधर
छिपता हुआ बच्चा
घर की चाहरदीवारों के बीच
सहमा सा
पिता की शोर करती
आवाज़ से
कान को
ढापे हुए
इस इंतजार में
कि
कब निकले
पिता घर से
और
घर उसका हो जाए

सबसे नागवार गुजरता था
उनका माँ पर चिल्लाना
दिनभर मकान को
घर बनाते –बनाते
थकती थी
माँ की हिम्मत
पर नहीं हारते थे
“पिता”
अपनी आदतों से

मन ही मन
लेता था निर्णय
वो
मासूम सा बचपन
कि
बड़ा होकर
नहीं चलेगा इन पदचापों पर

समय ने छोटे से बड़ा
बड़ा से
जवान कर दिया
उसके दालान और आँगन में
दीखता हैं बचपन
पर नहीं दिखता कोई
मासूम
दौड़ कर उससे लिपटता हुआ
और
“पापा“ प्यार से कहते हुए
न जाने
कब और कैसे
वो भी चल चुका होता है
पिता की राह पर
उसकी ऊँची आवाजें
जा टकराती है
बंद दिशाओं में
पत्नी की आँचल में
सुबकते बच्चे
आज भी करते हैं इंतजार
कि
कब हो पापा बाहर
और हम
अपने होने का उत्सव मनाये!