अधरों पर क्षीण हंसी चेहरे पर उदासी है / जतिंदर शारदा
अधरों पर क्षीण हंसी चेहरे पर उदासी है
यह चित्र ही मानव का इस युग की उकासी है
मैं पीता रहता हूँ पर प्यास नहीं बुझती
मेरे उर की तृष्णा ही युग-युग की प्यासी है
जिस पथ से रोकोगे उस ओर ही जाएंगे
अपनी उच्छृंखलता यौवन बेला-सी है
तमसावृत मार्ग पर मत घबराना साथी
प्राची में फूट रही लो रक्ताभा-सी है
अलकों की ओट लिए तेरी चंचल चितवन
घनघोर घटाओं में मानो चपला-सी है
इस गहन निराशा में आशा की चिंगारी
घनघोर घटाओं में स्वर्णिम रेखा-सी है
जब सूरज ढलता है मैं यही सोचता हूँ
यह सतरंगी आभा कंचन काया-सी है
मैं जिसको ढूँढ रहा वह मेरे पास ही था
बैकुंठ निवासी तो मम हृदय निवासी है
यह रूप की अनुभूति आभास है अनुभव का
दृष्टि है किरणमयी यह दृश्य आभासी है
इस दाना पानी में कितनी निष्ठुरता है
कल घर में रहता था वह आज प्रवासी है