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अधर सुख से हों स्पंदित प्राण / सुमित्रानंदन पंत
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अधर सुख से हों स्पंदित प्राण,
बहे या विरह अश्रु जल धार,
फूल बरसें, या कंटक, वाण,
मुझे प्रभु की इच्छा स्वीकार!
तुम्हारी रुचि मेरी रुचि नाथ,
गहो या गहो न मेरा हाथ,
छोड़ दो जीर्ण तरी मँझधार
लगाओ या भव सागर पार!