भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अधूरी इच्छाएँ : वर्गानुक्रम / कुमार अंबुज
Kavita Kosh से
कथा-कहानियों में और इधर के जीवन में भी
आसपास कोई न कोई हमेशा मिलता है जो सोचता है
कि कभी बैठ सकूँगा हवाई-जहाज़ में
एक शाम फ़ाइव स्टार होटल में पी जाएगी चाय
कि इन सर्दियों में ख़रीद ही लूँगा प्योरवूल का कोट
एक स्त्री सोचती है वह लेगी चार बर्नर का चूल्हा
एक आदमी करता है क़रीब के हिल स्टेशन का ख़याल
इन इच्छाओं की लौ जलती है सपनों में लगातार
इसी बीच यकायक बुझ जाती है जीवन-ज्योति ही
उधर एक आदमी सपना देखता है भरपेट भोजन का
कल्पना में लगाता है मनचीते व्यंजनों का भोग
नीन्द में ही लेता है स्वाद नानाप्रकार
सपने में आ जाती है तृप्ति की डकार
ओंठों से ठोड़ी तक रिसकर फैलती है लार
भिनभिनाती हैं मक्खियाँ ।