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अनंतिम / अशोक कुमार
Kavita Kosh से
जब भी मैं किसी वृद्ध को देखता हूँ
सोचता हूँ
क्या एक दिन मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा
जब भी मैं किसी अधेड़ को देखता हूँ
सोचता हूँ क्या मैं अधेड़ हो गया हूँ
जब कभी किसी युवा को देखता हूँ
अपना बीता हुआ चेहरा
और रीता हुआ समय उसमें पाता हूँ
जब कभी किसी किशोर और शिशु को देखता हूँ
अपने अल्हड़पने और किलकारियों की अनुगूंज सुनता हूँ
मैं तमाम अनंतिम सत्य देखता हूँ
खंडित और विसर्जित होने के सारे तर्क
अस्वीकार कर देता हूँ।