अनत सुत! गोरस कौं कत जात / सूरदास
राग नट
अनत सुत! गोरस कौं कत जात ?
घर सुरभी कारी-धौरी कौ माखन माँगि न खात ॥
दिन प्रति सबै उरहनेकैं मिस, आवति हैं उठि प्रात ।
अनलहते अपराध लगावति, बिकट बनावति बात ॥
निपट निसंक बिबादित सनमुख, सुनि-सुनि नंद रिसात ।
मोसौं कहति कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ॥
करि मनुहारि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।
सूर स्याम! नित सुनत उरहनौ, दुखख पावत तेरौ तात ॥
भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) पुत्र ! तुम दूसरों के यहाँ गोरस के लिये क्यों जाते हो ? घर पर ही तुम्हारी कृष्णा और धवला गायों का मक्खन (बहुत) है, उसे माँग कर क्यों नहीं खा लिया करते ? ये सब (गोपियाँ) प्रतिदिन सबेरे-सबेरे उलाहना देने के बहाने उठकर चली आती हैं । अनहोने दोष लगाती हैं, अद्भुत बातें बनाती (गढ़ लेती) हैं ये सर्वथा निःशंक हैं, सामने होकर झगड़ा करती है, तेरे घर तेरे पुत्र का भी पेट नहीं भरता ।' सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार माता पुत्र को उठाकर गोद में ले लेती हैं और उसकी मनुहार (विनती-खुशामद) करके रोकती हैं कि `श्यामसुन्दर ! नित्य उलाहना सुनने से तुम्हारे पिता दुःख पाते (दुःखी होते) हैं ।'