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अनन्त जीवन अगर पाऊँ मैं / जीवनानंद दास / चित्रप्रिया गांगुली

अनन्त जीवन अगर पाऊँ मैं —
तब अनन्त काल के लिए अकेला पृथ्वी पथ पर मैं फिर लौटूँगा
और देखूँगा कि हरी घास उग रही है —
और पीली घास झड़ रही है —

देखूँगा आकाश को सफ़ेद होते हुए — भोर में —
विच्छिन्न मुनिया की तरह लाल रक्त-रेखा
जिसके हृदय पर लगा हुआ सांध्य-नक्षत्र पाऊँगा मैं;
देखूँगा अनचीन्ही नारी,
विलग जूड़े की गाँठ खोलकर चली जाएगी —
मुख पे उसके नहीं,
अहा ! गोधूलि का नरम आभास तक

अनन्त जीवन यदि पाऊँगा मैं —
तब असीमकाल के लिए पृथ्वी पर मैं लौटूँगा —
ट्राम, बस, धूल देखूँगा बहुत मैं —

देखूँगा ढेर सारी बस्तियाँ, हाट,
तंग गलियाँ, टूटी हाण्डी, मारामारी, गाली, वक्र आँखें,
सड़े हुए झींगे
और भी बहुत कुछ—

जो नहीं लिखा
फिर भी तुम्हारे साथ अनन्तकाल भी,
अब न हो पाएगा मिलना

मूल बांग्ला से अनुवाद : चित्रप्रिया गांगुली