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अनमना रोमांस / भूपिन्दर बराड़
Kavita Kosh से
दफ्तरों से छूटते ही
बस स्टॉप के सामने
फिर जमा होती है भीड़
एक एक कर
रूकती हैं लोकल बसें
धुआँ उगलती हुई
पसीने से निचुड़ी भीड़ में
मचता है कोहराम
हरेक को है घर लौटने की बेसब्री
बस वही है जो हर बार
अनसुनी करती है
कंडक्टर की सीटी
पल्लू में उंगलीयाँ उलझाए
उलझी रहती है
न सुलझने वाले
अटपटे सवालों में
वह जानती है
उन सवालों का
कोई उत्तर नहीं
न उसके पास
न किसी और के
हैरत है कि बिलकुल यही बात
सोच रहा है वह
जो बार बार पोंछता है ऐनक
और जेब टटोलता है
कुछ खो गया ढूंढते हुए
कंडक्टर की सीटियों को अनसुनी करते
कनखियों से एक दूसरे के भांपते
दो अजनबी
एक अजनबी शहर में
करते हैं सही बस का इंतजार