भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनमेल मेल / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझको क्या लेना भारत से, मेरा धर्म रहे
मन्दिर-मस्जिद दिखे, भले ही ईश्वर-अल्लाह दूर
भले उपासना और इबादत के सर चकनाचूर
अगर रहे तो पंडित-मुल्ला का ही कर्म रहे ।

भक्त वही, जो भीड़ बना कर पीछे-पीछे हो
पंडित-मुल्ला जो भी बोले, बोले भीड़ वही
बिन जाने, क्या खाँसी में करता है खटक दही
गला वही है, जो काते के नीचे-नीचे हो ।

आँखों की दुनिया है धूमिल, स्वर्ग देखना चाहे
छपी किताबों, दीवारों में किसका दर्शन होगा
बाँच रहा है धर्मगं्रथ को, जन्मजात जो बोंगा
भूत, भविष्यत, वर्तमान के कंगूरों को ढाहे ।

जब त्रिकाल ही तीन फाँक हो, न्यास कहाँ पर होगा
निराकार-साकार कोई हो, वास कहाँ पर होगा ।