भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं / 'शमीम' करहानी
Kavita Kosh से
अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं
बस प्यार हमारी क़ीमत है मिल जाए तो हम बिक जाते हैं
सिक्कों की चमक पे गिरते हुए देखा है शैख़ ओ बरहमन को
फिर मेरे खंडर की क़ीमत क्या जब दैर ओ हरम बिक जाते हैं
क्या शर्म-ए-ख़ुदी क्या पास-ए-हया ग़ुर्बत की अँधेरी रातों में
कितने ही बुतान-ए-ज़ोहरा-जबीं बा-दीदा-ए-नम बिक जाते हैं
ये हिर्स ओ हवा मंज़िल है ऐ राह-रवो हुश्यार ज़रा
जब हाथ रूपहले बढ़ते हैं रहबर के क़दम बिक जाते हैं
वो साहिब-ए-इल्म-ओ-हिकमत हों या पैकर-ए-अक़्ल-ओ-दानाई
इक मेरे दिल-ए-नादाँ के सिवा सब तेरी क़सम बिक जाते हैं
ये शहर है शहर-ए-ज़रदारी क्या होगा ‘शमीम’ अंजाम तिरा
याँ ज़ेहन ख़रीदा जाता है याँ अहल-ए-क़लम बिक जाते हैं