रूखे - सूखे बँसवन को
झिंझोड़ती आँधी
आँखों में भर गई रेत
उखाड़ - पछाड़ गई
डूबते दिन का मस्तूल
कुल्ले करके कोलाहल के गिरेबान में
लौटने लगी उतनी ही जल्दी।
बूढ़े बाँस ने
पकड़ा गला
दी पटकनी
धोबी पछाड़ खाकर
गिरी चारों खाने चित्त आँधी
कहा कान में फटे बाँस ने —
इतना सब दे गई हो
लेकर नहीं जाओगी कुछ भी
फिर उसने
चुपके से रख दिया ओठों पर
कभी न मिटने वाला निशान
बाँसों की दुनिया में
तभी से अनगिनत स्वर हवाओं के साथ
गलबहियाँ डाले
बँसवन में नाचते हैं अनवरत।