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अनाम / हरीशचन्द्र पाण्डे

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उस दिन वह आग कल्छुल में आयी थी पड़ोस के घ्ज्ञर से
फूँकते-फूँकते अंगारों को न बुझते देते हुए

कभी-कभी
बुझ ही जाती है घर की सहेजी आग

दाता इतराया नहीं
और इसे पुण्य समझना भी पाप था

रखें तो कहाँ रखें इस भान को

पुण्य और पुण्य से परे भी है कुछ अनाम
जैसे
दिवंगता माँ के नवजात को मिल ही जाती है
कोई दूसरी भरी छाती...