अनायास / अनुज लुगुन
अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
शिलापट पर अंकित शब्दों-सा
हृदय मे टंकित
संगीत के मधुर सुरों-सा
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
तुम्हारा नाम ।
अनायास ही मेघों-सी
उमड़ आती हैं स्मृतियाँ
टपकने लगती हैं बूँदें
ठहरा हुआ मैं
अनायास ही नदी बन जाता हूँ
और तटों पर झुकी
कँटीली डालियों को भी चूम लेता हॅूँ
रास्ते के चट्टानों से मुस्कुरा लेता हूँ ।
शब्दों के हेर-फेर से
कुछ भी लिखा जा सकता है
कोई भी कुछ भी बना सकता है
मगर तुम्हारे दो शब्दों से
निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
अंकुरित हो उठते हैं सूखे बीज
और अनायास ही स्मरण हो आता है
लोकगीत के प्रेमियों का किस्सा ।
किसी राजा के दरबार का कारीगर
जिसका हुनर ताज तो बना सकता है
लेकिन फफोले पड़े उसके हाथ
अॅँधेरे में ही पत्नी की लटों को तराशते हैं
अनायास ही स्मरण हो आता हैं
उस कारीगर का चेहरा
जिस पर लिखी होती हैं सैकड़ों कविताएँ
जिसके शब्द, भाव और अर्थ
आँखों में छुपे होते हैं
जिसके लिए उसकी पत्नी आँचल पसार देती है
क़ीमती हैं उसके लिए
उसके आँसू
उसके हाथों बनाए ताज से
मोतियों की तरह
अनायास ही उन्हे
वह चुन लेती है।
अनायास ही स्मरण हो उठते हैं
सैकड़ों हुनरमन्द हाथ
जिनकी हथेलियों पर कुछ नहीं लिखा होता है
प्रियतमा के नाम के सिवाय ।
अनायास ही उमड़ आते हो तुम
तुम्हारा नाम
जिससे निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
जिससे सुलगती है चूल्हे की आग
तवे पर इठलाती है रोटी
जिससे अनायास ही बदल जाते हैं मौसम ।
अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
संगीत के सुरों-सा
सब कुछ अनायास
जैसे अपनी धुरी पर नाचती है पृथ्वी
और उससे होते
रात और दिन
दिन और रात
अनायास
सब कुछ....