अनिःशेष प्राण / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
अनिःशेष प्राण
अनिःशेष मारण के स्रोत में बह रहे,
पद पद पर संकट पर हैं संकट
नाम-हीन समुद्र के जाने किस तट पर
पहुंचने को अविश्राम खे रहा नाव वह,
कैसा है न जाने अलक्ष्य उसका पार होना
मर्म में बैठा वह दे रहा आदेश है,
नहीं उसका शेष है।
चल रहे लाखों-करोड़ों प्राणी हैं,
इतना ही बस जानता हूं।
चलते चलते रुकते हैं, पण्य अपना किसको दे जाते हैं,
पीछे रह जाते जो लेने को, क्षण में वे भी नहीं रह पाते हैं।
मुत्यु के कवल में लुप्त निरन्तर का धोखा है,
फिर भी वह नहीं धोखे का, निबटते निबटते भी रह जाता बाकी है;
पद पद पर अपने को करके शेष
पद पद पर फिर भी वह जीता ही रहता है।
अस्तित्व का महैश्वर्य है शत-छिद्र घट में भरा-
अनन्त है लाभ उसका अनन्त क्षति-पथ में झरा;
अविश्राम अपचय से संचय का आलस्य होता दूर,
शक्ति उसी से पाता भरपूर।
गति-शील रूप-हीन जो है विराट,
महाक्षण में है, फिर भी क्षण-क्षण में नहीं है वह।
स्वरूप जिसका है रहना और नहीं रहना,
मुक्त और आवरण-युक्त है,
किस नाम से पुकारूं उसे अस्तित्व प्रवाह में-
मेरा नाम दिखाई दे विलीन हो जाता जिसमें?