अनिश्चितताक सागर / पंकज कुमार
बरू अहाँकेँ नहि लगैत अछि
मुदा सत्य यएह थिक
ई फिफरी परल मुँह चिकरि-चिकरि कए
कए रहल अछि किलोल
जे अनिश्चितताक सागरमे उबडुब करैत करैत
ससरि आएल छी अहाँ बड्ड आगाँ
की बुझि पड़ैत अछि (?)
पहिने बला समय रहलैक अछि आब!
धैएले छैक एखन धरि
ओ नओ-नओ हाथक पगहा
धुरर! कहिया नहि दाँत-मुँह निपोड़ि देलकैक
दूनू सिलेबिया बरद
नहि बचाए सकब हम अहाँकेँ
किएक हमहुँ मझधारे में छी
आ एहन इनारक मोटका रस्सासँ
केओ एक्के गोटे बाहर निकलि सकैत अछि
तेँ हमहीं निकलब सएह अछि समीचीन
एखनुका समयमे
कोनो काज अछि तँ
कहि दिअ न हमरे
अवशिष्ट जीवनमे कए देब हम पूर्ण
अहुना आब जीबि कए
कोनो आर बड़का इनार-पोखरि खुनाएब की (?)
अहाँक खुनाएल पोखरिक जाठि
आइ कौन काजक (?)
जँ नहि बनि सकत एहि बएसमे
अहाँक हाथक लाठी
ई तँ जन्महि लेने अछि
अहाँक अस्मिताक देबाल पर
बस करिखा पोतबा लेल
अहाँक हाथक बाँटल रस्सा
जाहि पर विश्वास कए इनारमे खसा कए
एकटा सम्बन्धक नबका भित्ती
ठाढ़ भेल छल
से एतेक कमजोर कोना भए सकैछ (?)
जे अहीँकेँ उठाबए बेरमे
कए रहल अछि दुर्बलताक प्रलाप
मनोरथ!
कोन मनोरथ (?)
एना करू
अहूँ चुप रहू
आ हमहुँ चुप रहए छी।