भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनुपस्थित / महेश वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सामने दीवार पर, चौखुट भर
जगह है एक तस्वीर की
कोई तस्वीर नहीं है एक जगह है -
तस्वीर के न होने की, और
यह न होना भी इतनी पुरानी घटना कि
पिछले बार की पुताई में मिल नहीं पाया था -
इस चौखुटे से-पुती हुई बाकी दीवार का रंग।
अलग से और उजला दिखने लगा है
इस खाली जगह का खाली रंग
एक जि़द की तरह की गई
दोबारा पुताई बस इस चौखुटे भर।
क्या था इस जगह पर?
देवता-पितर या शाश्वत झरते झरने का भूदृश्य?
कोई प्रमाणपत्र?
याद करते हुए देखने लगता हूँ खिड़की से बाहर दूर -
एक सूखा वृक्ष और उसकी टहनियाँ, जैसे
खाली जगह हरे पत्तों के न होने की।
अपने अनुषंगों के साथ आती जाती रहती उस पर भी वर्षा
और गहराता जाता सूखी टहनियों के बीच का
अनुपस्थित हरा रंग।
निशब्द घुस जाता असमय मारा गया
दोस्त सोचने की
धुँधली कोठरी में।
भूल की तरह आ जात जिसका नाम
जीवित दोस्तों की महफि़ल में
फिर और साफ दिखने लगती
वह जगह दोस्त के न होने की,
इसके बाद दिखने लगता शब्दों का न होना
शब्दों के बीच।
अंततः की तरह लौटते हुए अपने कमरे
सामने दीवार पर-कोई तस्वीर नहीं है एक जगह है
तस्वीर के न होने की।
अपने अनुपस्थित की तरह देखता हूँ यह,
अपना कमरा।
मेरे अनुपस्थित की तरह देखता है यह मुझको।