भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनुभव-2 / सुकान्त भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
विद्रोह आज विद्रोह चारों तरफ़,
मै लिखता जा रहा हूँ उन्ही दिनों को पंचांग में,
इतना विद्रोह किसी ने कभी नहीं देखा ,
हर तरफ़ से उठ रही अबाध्यता की तरंग,
स्वप्न शिखर से उतर आओ सब -
सुनाई देता है ,सुन रहे हो उद्दाम कलरव ?
नया इतिहास लिख रही हैं ये हड़तालें,
रक्तों से चित्रित हैं सभी द्वार ।
आज भी घृणित और कुचले लोग हैं, दलित हैं,
देखो आज वे सवेग दौड़ रहे हैं,
उन्ही के दलों के पीछे मै भी दौड़ रहा हूँ,
उन्ही के मध्य मैं भी मरता जी रहा हूँ ।
तभी तो चल रहा है लिखना इन दिनों पंचांग-
विद्रोह आज । विप्लव है चारों तरफ़ ।
१९४६
मूल बंगला से अनुवाद : मीता दास