भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनुभव / मनोज चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{{KKRachna | रचनाकार=

सुनता आया हूँ अक्सर ,
यह शब्द ,
बेरोजगारी के दिनों से ही ,
नित दिन झेलते,
महज औपचारिकता स्वरुप,
लिए गए साक्षात्कारों में l

सोचता था कि ,
क्या सचमुच,
इतना जरुरी है अनुभव,
निजी कंपनी की,
उस नौकरी के लिए भी ,
जहाँ मात्र,
रोबोट के माफिक,
यन्त्रवत कार्य करते ,
और पसीना बहाते हुए,
शोषित होता है आदमी ?

बड़े – बुजुर्गों की बातें भी,
स्मरण हो चलती हैं ,
धूप में बाल सफ़ेद,
नहीं किये हैं भाऊ<ref>मंडी ,हिमाचल प्रदेश की स्थानीय बोली मंण्डयाली में इस शब्द का प्रयोग किसी बालक अथवा अपने से छोटे उम्र के व्यक्ति को संबोधित करने के लिए किया जाता है l
</ref>,
वो भी बताना चाहते है शायद,
कि उनके पास भी हैं ,
अनेक अनुभव,
जीवन के l

मैं भी संजो रहा हूँ अनुभव ,
जाने – अनजाने में,
की गई गलतियों से,
बक्त के साथ ,
संवेदनहीन होते रिश्तों से l

और निज स्वार्थों की,
तृष्णा- पूर्ति में लिप्त,
युवा पीढ़ी को,
गुमराह व भ्रमित करते
मीर जाफरों और जयचंदों के,
षडयंत्रों से l

जो कि बन बैठे हैं,
तथाकथित सुधारक,
चिन्तक व हितैषी समाज के l

यही अनुभव काम आएगा,
कालांतर में ,
बेनकाब करने ,
द्रोहियों के कृत्यों को ,
आने वाली पीढ़ीयों के समक्ष,
ताकि वह भी जान सकें,
उनके सच को l