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अनुभूत सत्य / उमा अर्पिता

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जब तक मैं
तुम्हारे मूल्यों को
स्वीकारती रही, तब तक
तुम्हारी प्रिय बनी रही
और, जिस दिन, मैंने
तुम्हारे मूल्यहीन मूल्यों पर
कुठाराघात किया, उसी दिन
तुमने मुझे
अपने दायरे से निकाल फेंका...
आदर्शवाद का ढिंढोरा पीटने वालों
मैं-मोम नहीं, जो पिघलकर
तुम्हारे मन चाहे
साँचे में
ढल जाऊँ...
पत्थर हूँ, जिसे रूप देने के लिए
आदर्श की बड़ी-बड़ी
परिभाषाओं की नहीं वरन्
एक बुतकार के हाथों की
आवश्यकता होती है
और--
वो, तुम नहीं हो!
न हो सकते हो!!