भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्तःसलिला / अज्ञेय
Kavita Kosh से
रेत का विस्तार
नदी जिस में खो गई
कृश-धार ।
झरा मेरे आँसुओं का भार
-मेरा दुःख-घन,
मेरे समीप अगाध पारावार-
उस ने सोख सहसा लिया
जैसे लूट ले बटमार ।
और फिर आक्षितिज
लहरीला मगर बेटूट
सूखी रेत का विस्तार-
नदी जिस में खो गई
कृश-धार ।
किंतु जब-जब जहाँ भी जिस ने कुरेदा
नमी पाई : और खोदा-
हुआ रस-संचार :
रिसता हुआ गड्ढा भर गया ।
यों अजाना पांथ
जो भी क्लांत आया, रुका ले कर आस,
स्वल्पायास से ही शांत
अपनी प्यास
इसे ले कर गया :
खींच लम्बी साँस
पार उतर गया ।
अरे, अन्तःसलिल है रेत :
अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम
फिर भी घाव अपने आप भरती,
पड़ी सज्जाहीन,
घूसर-गौर
निरीह और उदार !