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अन्तिम इच्छा एक मां की / साधना जोशी

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एक माँ ं ने जन्म दिया बेटी को,
पाल पोष कर पढने लगी बेटी ।
माँ ने कई सपने बुने उसकी,
दुनियां को सजाने के लिए ।
पढा-लिखाकर बड़ा बनाना,
अपने पैर पर खड़ा होने के लिए ।

किन्तु हाय! कैंसर ने घेर लिया माँ को,
सभी कहने लगे मरने से पहले,
पहले अपनी बेटी की षादी कर ले,
अपनी आंखो के ही सामने ।

माँ ने सब के मन के भावों को,
जाना समझा और,
बेटी को पूरी षिक्षा देने का,
बचन लिया उसके पिता से,
अपनी अन्तिम इच्छा कहकर ।

हॉस्टल भेजा, बेटी को और कहा,
तब तक मत आना वहां से,
जब तुम अपनी षिक्षा पूरी न कर लो,
चाहे मैं मर क्यों न जाऊँ ।

हाथ पकड़कर बोला जा बेटी,
यहॉ घर पर रहेगी तो,
ये घर के,
लोग तुझे व्याहकर ही,
छोटी उमर में तुझसे,
तेरा बचपन छीन लेंगेे ।

बेटी अपनी माँ की उँगली का,
अन्तिम स्पर्ष करके चली गई ।
षिक्षा को ज्योति जलाने को,
माँ चली गई इस दुनिया से,
अन्तिम इच्छा का सपना लेकर,
उन झुकी हुई पलकों में ।


बेटी की षिक्षा पूरि करके,
षादी हो गई ।
आज उस बेटी ने अपने पैरों पर,
खड़े होकर अपनी मां की,
अन्तिम इच्छा को पूूरी कर ली ।
और
खुष है माँ के प्यार के,
एहसास के साथ ।


हँसती होगी मां की आत्मा,
अपने सपने के साकार रूप को,
सच होते देखकर ।
उसने एक ज्योति को बुझने नहीं दिया,
अपने जीवन के तूफान की आंधी से ।

आज वही ज्योति अपनी दुनियां में,
रोषनी फैलाती है ।
माँ के उस उपहार से,
वाह! री माँ कैसी थी,
तुम्हारी ये अन्तिम इच्छा ।