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अन्दर भी आग जला / शैलेन्द्र

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झूठे सपनों के छल से निकल
             चलती सड़कों पर आ !
अपनों से न रह यों दूर-दूर
             आ क़दम से क़दम मिला !

हम सब की मुश्किलें एक सी हैं
             ये भूख, रोग, बेकारी,
कुछ सोच कि सब कुछ होते हुए हम
             क्यों बन चले भिखारी,
क्यों बाँझ हो चली ये धरती,
             अम्बर क्यों सूख चला ?

इस जग में पलते हैं अकाल,
             है मौत की ठेकेदारी,
सड़कों पर पैदा हुए और
             सड़कों पर मरें नर-नारी,
लूटी जिसने बच्चों की हँसी,
             उस भूत का भूत भगा !

यह सच है रस्ता मुश्किल है,
             मंज़िल भी पास नहीं,
पर हम क़िस्मत के मालिक हैं,
             क़िस्मत के दास नहीं,
मज़दूर हैं हम, मजबूर नहीं
             मर जाएँ तो घोंट गला !

तू औ’ मैं हम जैसे अनगिन
             इक बार अगर मिल जाएँ,
तोपओं के मुँह फिर जाएँ,
             जुल्म के सिंहासन हिल जाएँ,
ओ, जीते जी जलने वाले,
             अन्दर भी आग जला !

1952 में रचित