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अन्धकार - 2 / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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अन्धकार है
अन्धकार है
बाहर - भीतर अन्धकार है ,
कब , अब सूरज कब आएगा ?

कई इकत्रित सदियों से , सदियों का
इस युग के मन में है छाया चारों ओर अन्धेरा ,
कुछ भी सूझ रहा न अब आंतर में हाथ पसारे;
भीतर के इस अन्धकार से घबरा
यह युग आँखें खोल देखता है जब बाहर,
अन्धकार के गूंगे - काले साए हैं ;
आसमान के सिर पर चढ़कर
आ गहरे मंडराए हैं ;
कब , अब सूरज कब आएगा ?

कब , जब अन्धकार निगलेगा अंतिम क्षीण किरण तब ?
कब , जब सूनापन भी कट कर साथ नहीं देगा तब ?
कब , जब सन्नाटा नारों का गला घोंट देगा तब ?
कब , जब दल- बादल की उच्च हवेली
घृणा गिराकर भस्म करेगी धरती के छप्पर तब ?

कब तक मात्र भूख फांककर जीएंगे ये लोग ?
कब तक ठोकर से संचालित होंगे इनके भाग्य ?
किन पापी कर्मों के कारण लगा जन्म से रोग ?
कब तक फटी हुई निर्धनता के चिथड़ों से
अर्द्धमृतक तन ढापेंगे निज हाड़ ?
कब तक ये अपने इस भव - सागर के
जा पाएंगे न अंतिम उस पार ?
कब तक आखिर कब तक
कब तक सूरज न आएगा ?

इन लोगों के बुझे हुए आंतर की
कन्दराओं से निकल - निकलकर ,
यह काले दिल वाला अंधियारा
गाँवों पर , नगरों पर,
सडकों पर , डगरों पर ,
पीपल के पत्तों पर ,
पथराई छतों पर ,
उमड़ - घुमड़ छितराया है कहाँ - कहाँ नहीं ?

वह पल जाने कब आएगा ?
जब ऊर्जस्वत ज्योतिर्मय प्रकाश - पुरुष ,
आकस्मिक हो प्रकट पाँव धर पूर्व की देहली पर
एक झपट में अन्धकार को ,
पकड़ अंक में लेगा थाम
और भयंकर तीखे निज नृसिंह - नखों से
उदर फाड़कर देगा फेंक .

उस नाज़ुक पल के
आगमन की प्रतीक्षा में ,
अधुनातन काल - खंड बेचैन है ;
जैसे प्रसूति - गृह के बाहर
पति, पुत्र का पिता बनने के लिए
अधीर टहल रहा हो ,
इधर से उधर

( अग्निजा ,१९७८)