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अन्धकार - 3 / बसन्तजीत सिंह हरचंद

अन्धकार है
अन्धकार है
अन्धकार ही अन्धकार है .

अन्धकार के पीछे - पीछे
एक भयंकर सन्नाटा - सा ,
चला आ रहा अपना शीश झुकाए नीचे ;
(आँख उठाकर तो देखो तुम. )

घरों को ,गावों को .नगरों को ,
वनों को और पर्वतों के शिखरों को ,
प्रतिपल घूम रही पृथ्वी को ,
महाकाश के ज्ञान - नेत्र को अंधा करके ;
अवसर पाकर निगल रहा सब अन्धकार है .

इस मरघट के अन्धकार में ----
कुछ चिंता की लपटों पर अधझुलस नाचते हैं शव ,
कुछ अधमरी हुई लाशों को भूख नोचती बेढब ;
तीखी दाढ़ों वाले जबड़ों में दु:ख
अपनी - अपनी ओर खींचते कंगालों के कंकालों को .
निर्धनता मुंह फाड़े
झपट रही है व्याकुल होकर
सहज संतुलन सब खो - खोकर ;
लथपथ है इंसान .

है कब का मर चुका सत्यवादी प्रहरी वह ,
नहीं जलाने दिया पुत्र के शव को जिसने ;
पर अब जिसने पहरा देना सम्भाला है ,
अपनी लाश जलाना चाहता बिना मोल के .

देख - देख अंधेर अँधेरे में मत रोवो
कोई भी तो देख नहीं पाएगा ,
लुढका आंसू व्यर्थ चला जाएगा .

यह घुसपैठिया अन्धकार
गली में , आंगन में , घर में
और हमारे बुझे हुए अंतर में ,
बिना किसी आहट के
घुस आया है

(अग्निजा ,१९७८)