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अन्धकार / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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जाग उठा था उस गहराते अँधेरे में ही
बहती नदी की आवाज से
देखा था, पीले चाँद को समेटते अपनी छाया,
वैतरणी की तरफ से
कीर्तिनाशा की ओर।

सोया था उसी नदी किनारे – पुष की किसी रात –
शायद कभी नहीं जागने के लिए।

हे नीले चाँद,
पता है मुझे -
तुम दिन का आलोक नहीं, उद्यम नहीं, स्वप्न भी नहीं,
मृत्यु की शान्ति और स्थिरता है जो दिलों में
और भरी है जो नींदें
उस आस्वाद को भी नष्ट करने क्षमता नहीं तुममें,
तुम लगातार प्रवाहमान यंत्रणा भी नहीं,
हे नीले कस्तूरी से चाँद,
पता है तुम्हें, हे निशीथ,
बहुत पहले से ही अंधकार संग
अनंत मृत्यु की तरह घुलमिल जाने के बाद भी,
हठात सुबह की पहली किरण की अंगड़ाई सा
खुद को भी इसी धरा का जीव समझा था;
लगा था भय,
पाया था असीम दुर्निवार वेदना;
देखा था जाग कर रक्तिम आकाश का सूर्य
दे रहा था आदेश मुझे
युद्धरत होने उसी पृथ्वी के विरुद्ध;
भर गया था तब घृणा, वेदना और आक्रोश से मेरा दिल;
सूर्य से आक्रांत यह पृथ्वी मानो
करोड़ों सुअरों के आर्तनाद से
मना रहा था कोई उत्सव।
हाय, उत्सव!

हृदय के अविकल अंधकार में डुबो कर सूर्य को,
चाहा था फिर से सोना,
चाहा था उस असीम अंधकार में मृत्यु की भाँति एकाकार हो जाना।

मनुष्य तो था ही नहीं किसी दिन।
हे नर, हे नारी,
जाना भी नहीं था तुम्हारी पृथ्वी को किसी दिन;
किन्तु किसी और ग्रह का कोई प्राणी भी तो नहीं था।
जहाँ स्पंदन, संघर्ष, गति,
जहाँ उद्यम, चिंता, काम,
वहीँ सूर्य, पृथ्वी, बृहस्पति, कालपुरुष, अनंत आकाशग्रंथी,
हज़ारों सुअरों का चीत्कार वहीँ,
वहीँ हज़ारों सुअरियों की प्रसववेदना का आडम्बर;
वही सब भयावह आरतियाँ!
बोझिल है मेरी आत्मा उस गंभीर अंधकार की नींद के आस्वाद से;
क्यों जगाना चाहते हो मुझे?
हे समयग्रंथी, हे सूर्य, हे माघ की ठंठी रात की शांत ठिठरती कोयल,
हे स्मृति, हे शीतल हवा
क्यों जगाना चाहते हो मुझे?

अब इस सुनसान अंधकार में
किसी नदी के छल-छल स्वर से
जागूँगा नहीं और;
देखूंगा भी नहीं उस निर्जन चाँद को
समेटते उसकी आधी से ज्यादा छाया को
वैतरणी की तरफ से
कीर्तिनाशा की ओर।

सोया रहूँगा उसी नदी किनारे – पुष की उसी रात में – शांत, निश्चल -
कभी नहीं जागने के लिए
अब उठूँगा नहीं मैं – अब उठूँगा नहीं और।