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अन्धड़ों में छोड़ दो-अकेला / तरुण

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मुझे जेठ के वीरानों में, जंगलों में, बीहड़ों में
कोयले-सी सुनसान रात्रियों के
काले-पीले अन्धड़ों में छोड़ दो-
बिलकुल अकेला।

जीर्ण संसार के ध्वंस को बस अब आवश्यक,
प्रचण्ड शक्तियों के महा आगमन को देखने, मन के पैदे तक महसूसने!
देखूँ-रुद्र शिव-सौन्दर्य-
चौड़ी खुली आँखों में लिये-युगान्तर का सुख, हर्ष, आश्चर्य।

हो धूल-ही-धूल, आँखें रड़कें,
तीखी पसलियाँ उभारतीं चमाचम बिजलियाँ कड़कें।
काजल-सा काला हो क्षुब्ध अँधेरा-ही-अँधेरा,
प्रबल चक्रिल बगूलों का हो घेरा।
पर्वतीय झरनों की-सी कर-कर कई-पर्त, कई-मोड़ आवाजें-
आकाश से गिरें आँखें चौंधियाती धड़धड़ाती गाजें।

दृश्य बहुत भाते हैं मुझे आजकल आँधी-अन्धड़ों के:
घिरते अँधेरों में, झटकेदार पवन-वेगों का कानों में पड़ना,
समुद्री भँवर-से बगूलों में चक्कर-खा हरहराते छतों-छप्परों का उड़ना,
अरड़ाती गद्दर डालों के साथ भीमाकार पेड़ों का समूल उखड़ना!
नंगी-आँखों देखूँ, महसूस करूँ कि आदमी है कितना अदना, और
जन-क्रांतियों में, प्याज के छिलकों से ठौर-ठौर-
भवन, ताज, सिंहासन, झण्डा-पताका, तमगे-वर्दियाँ, राजदण्ड
चिंदी-चिंदी हो उड़ जाते हैं कैसे-जैसे, रंगीन फूटे फुग्गारे रब्बड़ों के!

मुझे अन्धड़ों में छोड़ दो बिल्कुल अकेला।

1986