लाती है जब अपनी यह शुरूआत अंधेरी।
करती है उज़ाले के तई मात अंधेरी।
देती है ग़रीबों को मुकाफ़ात<ref>गुनाह की सजा, पाप का दण्ड</ref> अंधेरी।
दिखलाती है खूबां की मुलाकात अंधेरी।
हर ऐश की करती है इनायात<ref>कृपा</ref> अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥1॥
जिस वक़्त हुई रात अंधेरे से धुआं धार।
जो शोख़ मिला, शौक़ से, जा भिड़ गए ललकार।
गर इसमें कहीं शोर या गुल हुआ एक बार।
इधर से उधर हो गए दो चार क़दम मार।
पर लाती है इस ढब की मुहिम्मात<ref>बड़े-बड़े काम</ref> अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥2॥
जब यार चला ओढ़ के काला सा दुशाला।
कम्बल को इधर हमने भी कांधे पै संभाला।
जा मिल गए और दिल का भी अरमान निकाला।
मुंह उसके रक़ीबों<ref>किसी स्त्री से प्रेम करने वाले दो व्यक्ति आपस में रक़ीब होते हैं</ref> का किया खू़ब सा काला।
क्या वस्ल की रखती है करामात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥3॥
कल यार ने और हमने जो पी मै भी गुलाबी।
और ऐश लगे करने जो हो, हो के शराबी।
इतने में रक़ीब आ गया, बू सूंघ शिताबी<ref>शीघ्रता से</ref>।
गर चांदनी होती तो बड़ी होती ख़राबी।
टाले है सब आई हुई आफ़ात<ref>आफतें, मुसीबतें</ref> अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥4॥
सोते थे जो हम इसमें सुने गैर के खटके।
छुप-छुप गए उठ दोनों वहीं नीचे पलंग के।
हम हंसते रहे उसने ढबक ढब्बे जो मारे।
कितना ही टटोला जो उजाला हो तो पावे।
चोरी की भी रख लेती है क्या बात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥5॥
मामूल<ref>दस्तूर, नियम</ref> है जब चांद का छुपता है उजाला।
होता है अजब खेल परी<ref>परी की तरह सुन्दर</ref> रू से दोबाला।
महबूब परी शक्ल सुराही व प्याला।
ने रोकने वाला न कोई टोकने वाला।
इस लूट की करती है मदारात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥6॥
जिस कूँचे में चाहा वहीं करने लगे फेरी।
बैठे कहीं उठ्ठे, कहीं जल्दी, कहीं देरी।
और इसमें कहीं मिल गई गर हुस्न की ढेरी।
फिर जब तू न कह मेरी, न मैं कुछ कहूं तेरी।
काम ऐश के लाती है लगा साथ अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥7॥
था शोख़<ref>चंचल</ref> से कल रात अजब सैर का खटका।
बोसों की मुदारात<ref>आवभगत, सम्मान</ref> का सीनों की लिपट का।
आया जो चुग़ल ख़ोर तों बंदा वहीं सटका।
वह टक्करें खाता हुआ, फिरता रहा भटका।
रद करती है सब सर की बल्लियात्<ref>विपत्तियां, आपदाएं</ref> अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥8॥
थी शब को अंधेरी तो अजब ढब की ”नज़ीर“ आह।
सौ ऐशो तरब से थे हम उस यार के हमराह।
निकले थे हमें ढूँढ़ने उस दम कई बदख़्वाह।
मिल-मिल भी गए तो भी न देखा हमें वल्लाह।
क्या ऐश की रखती है तिलस्मात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥9॥