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अपना अपना रंग / एजाज़ फारूक़ी
Kavita Kosh से
तू है इक ताँबे का थाल
जो सूरज की गर्मी में सारा साल तपे
कोई हल्का नीला बादल जब उस पर बूँदें बरसाए
एक छनाका हो और बूँदें बादल को उड़ जाएँ
ताँबा जलता रहे
वो है इक बिजली का तार
जिस के अंदर तेज़ और आतिश-नाक इक बर्क़ी-रौ दौड़े
जो भीउस के पास से गुज़रे
उस की जानिब खींचता जाए
उस के साथ चिपट के मौत के झूले झूले
बर्की-रौ वैसी ही सूरअत और तेजी से दौड़ती जाए
मैं बर्ग-ए-शजर
सूरज चमके मौन उस की किरनों को अपने रूप में धारूँ
बादल बरसे मैं उस की बूँदें अपनी रग रग में उतारूँ
बाद चले मैं उस की लहरों की नग़मों में ढालूँ
और ख़िजाँ आए तो उस के मुँह में अपना रस टपका कर पेड़ से
उतरूँ
धरती में मुदग़म हो जाऊँ
धरती जब मुझ को उगले तो पौदा बन फूटूँ