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अपना श्राद्ध / राम सेंगर
Kavita Kosh से
एक दुख हो तो किसी से हम कहें ।
इसलिए, अच्छा यही है, चुप रहें ।
आँख कबसे किरकिराती है
मीड़ने पर चिरपिराती है
एक छोटी बात के पीछे
खोलना बेकार है मन की तहें ।
श्राद्ध ख़ुद ही कर रहे अपना
क्या पता, कितना अभी तपना
छींकने पर नाक कटती है
ज़िन्दगी के झूठ को कैसे सहें ।
टेंटुए में फाँस अटकी है
शीश पर तलवार लटकी है
हो गए हैं छेद नौका में
भ्रम किनारे का लिए कब तक बहें ।