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अपनी आखिरी माहवारी के लिए / लूसिलै क्लिफ्टन / प्रेमचन्द गांधी

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“क्‍या था तुम्‍हारे पेट में?”
मेरी मां की सवालिया आंखें
नासमझी का आवरण ओढ़े
उबल पड़ती हैं
ठण्‍डी हवा खड़खड़ाती चली जाती है

इस बीच मैं अविचल खामोश खड़ी रहती हूं
धुले हुए गर्भाशय की दीवारों से जद्दोजहद करती
उस दर्द का वह फूला हुआ घाव सहते हुए
जो उसे देह से अलगाने के कारण लिपट गया दीवारों से

“यह ज़रूर ग़ैर यहूदी बच्‍चा रहा होगा
तुमने इसे इसीलिये छोड़ दिया क्‍योंकि
वो शख्‍स़ यहूदी नहीं था.”

मैं झुकते हुए हंसती हूं
आंसुओं से भरा विरोध जताते हुए

मेरी जिंदगी में किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं
चाहे कोई कितना भी सुंदर क्‍यों न हो
तुम जानती हो मां
मैं तो अभी शुरुआत कर रही हूं
जागने की
खुशियों की एक नई भोर लाने की
मेरी अपनी बच्‍चों जैसी हंसी पाने की
जिसे तुम या कोई नहीं छीन सकता
अब चाहे तुम कितनी भी त्‍यौरियां चढ़ा लो