अपनी उदास धूप तो घर-घर चली गई 
ये रोशनी लक़ीर के बाहर चली गई 
नीला सफ़ेद कोट ज़मीं पर बिछा दिया  
फिर मुझको आसमान पे लेकर चली गई 
कब तक झुलसती रेत पे चलती तुम्हारे साथ 
दरिया की मौज दरिया के अन्दर चली गई 
हम लोग ऊँचे पोल के नीचे खड़े रहे 
उल्टा था बल्ब रोशनी ऊपर चली गई 
लहरों ने घेर रक्खा था सारे मकान को 
मछली किधर से कमरे के अन्दर चली गई