अपनी एकता के बलिहारी / विपिन चौधरी
तुम्हारी भूख और मेरी प्यास एक नहीं थी
फिर भी एक ही सिक्के की उलट-पलट थे हम
चाहे किसी भी कोण से दिखें
हमें एक जैसा ही दिखना था
भिन्डी, तोरी, प्याज़, मोटर-कार, चप्पल उसी सहज भाव से ख़रीदने थे
जिस सहज भाव से हम मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे के दरों पर सजदा करते आए थे
हमे स्वतन्त्र देश के ग़ुलाम नागरिकों की तरह झूठी एकता मे बँधे नज़र आना था
वैमनस्य के सूक्ष्मतर कीटाणुओं को अपने भीतर किसी सुरक्षित तल मे छुपाते हुए
हमारे जबडे को इस कदर बन्द कर दिया गया कि हम
इधर-उधर मुँह न मार सके
उस पर सड़ी-गली धारणाएँ हमारे भीतर उड़ेल दी गईं
ताकि हर वक़्त हम सिर हिलाते हुए जुगाली करते रहें
यही हाल हमारे रिश्तों का था
हमारे ऊपर एक औरत को बिठा दिया गया था
जो हमें घर-गृहस्थी के कायदे-क़ानून सिखाती थी
और जो पुरुष था वह
अपने पुरुषत्व से ही इतना परेशान था
कि यही परेशानी उसके आस-पास को जला डालती थी
हम सबके घर-बार थे
फिर भी हमे बाहर का रास्ता अज़ीज़ था
जब हम घर में होते तो
बाहर की रंगरेजी ख़ुशियाँ खिडकियों, रोशनदानो से छन-छन कर आती थी
और जब हम उनकी उत्पति के नज़दीक जाते तो वे मायावी चीज़े
बिना विस्फोट के अन्तर्ध्यान हो जाती
कई बार अपने-आप की चौकीदारी करते-करते
परेशान और बेकाबू हो
दूसरे घरों के दरवाज़े खटखटाते हुए पाए गए
जिन पर हमारा अधिकार नहीं था उन्हे अपने अधिकार के घेरे में लाने
के जोख़िम में हमने अपना ख़ून-पसीना एक कर दिया
पर बात तब भी नहीं बनती दिखाई पडी
तब हम बनैले पशु में तब्दील हो गए
दिन-रात हम अपने आप से लड़ते जाते
और लहूलुहान होते जाते
भारी तादाद में असलहा-.बारूद इकट्ठा हो चला था हमारे भीतर
उसकी कालिमा की प्रतिछाया को हर रोज़ हम अपने आईने में स्पष्ट देखते
अपने हमशक़्ल को हम हमेशा अपने बगल में दबाए रहते
यह ऐसा सुविधा का रास्ता था जो किसी क़िताब मे दर्ज होने से छूट गया था
इस आविष्कार पर हमारा अपना पेटेण्ट था
आवश्यकता आविष्कार की जननी है
तो हमें आवश्यकता की इसी शह पर
अपने लिए इस आविष्कार को अंजाम दिया
जिसने कल अदालत मे झूठा बयान दिया
और कल जो नायक से खलनायक बना था
वह भी किसी हमशक़्ल का ही कारनामा था
नकली हमशक़्ल आदमी तो बार मे नशे में टुन्न रह ऐश काटता और
जो ख़ालिस था वह अपनी टूटी रबर की चप्पल से साइकिल पर पैडल मार
कोसों मील का सफ़र तय कर
कारख़ाने की ९ से ५ की समय-सारिणी मे खटता आया था ।