अपनी तरह का सच / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
हवा अब
हवा बनकर नहीं रहना चाहती
धूप बन खिलना चाहती है
जल बन बरसना चाहती है
बर्फ बन पिघलना चाहती है
धूप अब
धूप बनकर नहीं रहना चाहती
हवा बन उड़ना चाहती है
तपन की स्थिति को त्यागकर
शीतलता बरसाना चाहती है
बादल अब
गर्जना छोड़ना चाहता है
बरसने के गुण पर लगाना चाहता रोक
देना उसके स्वभाव से लगातार हो रहा है ख़ारिज
लेने की क्रिया में माहिर हो रहा है अधिक इन दिनों
धरती अब
निर्णय की भूमिका में है
वह नहीं मानती कि उसे जीवित रखने में
बादल का कोई योगदान है
उसे बनाने में उसका अपना संघर्ष है
पशु-पक्षी अब
अपने स्वरूप से स्वतंत्रता चाहते हैं
होना चाहते हैं मनुष्य इन दिनों
जीव-जंतु से लेकर खर-पतवार तक
पूर्व स्थिति को त्यागकर नवीन हो जाना चाहते हैं
मैं' स्वयं
नहीं रहना चाहता हूँ 'मैं'
हम और तुम में परिवर्तन की आकांक्षा है
जो हैं वह नहीं हो पा रहे हैं
जो नहीं हो पाते वही होने की कोशिश में हैं
यह भी अपनी तरह का एक समय है॥