भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी तो अपने से अनबन ठनी हुई है / नईम
Kavita Kosh से
अपनी तो अपने से अनबन ठनी हुई है
जाने कबसे! कह सकना है मुश्किल थोड़ा-
बिना लगाम नहीं सधता है जैसे घोड़ा।
खाली तर्कश, पर प्रत्यंचा तनी हुई है।
घर के घर में विकट महाभारत की आंधी-
अपने ही कुल देव, देवता लगे हुए हैं
लड़वाने में! धर्म चाश्नी में कर्मों की पगे हुए हैं।
कर्ण इधर हैं उधर हवा अर्जुन ने बांधी!
अपने से अपना विश्वास उठा क्यों जाता-
धीमे-धीमे जली जा रही क्यों मनसाई?
मिलता नहीं एक से दूजा भाई भाई-
चूल्हे का चौके से रहा नहीं अब नाता।
इनके हाथ लिए तो उनके हाथों पाँचे
बदल रहे हैं क्रमशः अब ढाँचे-दर-ढाँचे