भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी देह और इस संसार के बीच / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
मेरी जुल्फों में
निराशा बढ़ती ही जा रही है
जबकि भीतर ही हैं इनकी जड़ें
इसके केन्द्र में दमक रही हूँ मैं
पृथ्वी की तरह
यदि मैं अपनी स्म्रतियाँ एक तम्बू में रख दूँ
और खुद रहूँ दूसरे तम्बू में
मेरी आँखें गायब हो जाएँगी ....
मैं हूँ जैसे बाहर निकली हूँ किसी बीज से
मैं वापिस बीज में लौट जाऊँगी
मैं पदचिन्ह हूँ किसी घोड़े के नाल का
दिन के चेहरे पर बना हुआ
अपनी देह और इस संसार के बीच
मुझे दूरी रखनी चाहिए ।