भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी भाषा में वास / शिरीष कुमार मौर्य
Kavita Kosh से
हैरां हूँ कि किसे ग़ैर बताऊँ, अपना कहूँ किसे
मैं किसी और भाषा की कविता के मर्म में बिन्धा हूँ
बन्धा हूँ किसी और की गरदन के दर्द में
न मुझे लिखने के लिए बाध्य किया गया न लटकाया फाँसी पर
दूसरों के अनुभवों में बिंधना और बंधना हो रहा है
इतना होने पर भी प्रवास पर नहीं हूँ
मेरा वास अपनी ही भाषा के भीतर है
वह भाषा मेरी भाषा में प्रवासी है
इन दिनों
आप चाहें तो सुविधा के लिए उसे अँग्रेज़ी कह सकते हैं