अपनी भाषा / रसूल हम्ज़ातव / मदनलाल मधु
सपनों में तो सदा अनोखी और अटपटी बातें होतीं
आज अचानक मैंने अपने को सपने में मरते देखा,
दग़िस्तान घाटी थी, मैं था औ’ धूप झुलसती थी
सीना गोली से छलनी था, मिटती थी जीवन की रेखा ।
कलछल-कलछल नदिया बहती, वह अबाध ही दौड़ी जाती
नहीं ज़रूरत जिसकी जग को, और सभी ने जिसे भुलाया,
मेरे नीचे थी मेरी ही, अपनी मिट्टी, अपनी धरती,
उसका हिस्सा बनने को थी, कुछ क्षण में मेरी भी काया ।
गिनता हूँ मैं अपनी सांसें, मगर न कोई इतना जाने
पास न कोई मेरे आए, सहलाएँ न प्यारी बाँहें,
सिर्फ़ उकाब कहीं दूरी पर, ऊँची - ऊँची भरे उड़ानें
और कहीं पर एक तरफ़ को, हिरन भर रहे अपनी आहें ।
अपनी भरी जवानी में मैं छोड़ रहा हूँ इस दुनिया को
फिर भी मेरी इस मिट्टी पर, मेरे शव पर और क़ब्र पर,
माँ भी नहीं, नहीं प्यारी भी, नहीं दोस्त कोई रोने को
अरे, न क्यों वे भी आती हैं, जो रोती हैं पैसा लेकर ।
बेबस पड़ा-पड़ा ऐसे ही, तोड़ रहा था मैं दम अपना
तभी अचानक, कहीं निकट ही, कुछ आवाज़ें पड़ी सुनाईं,
चले जा रहे थे दो साथी, वे कुछ कहते, कुछ बतियाते
भाषा उनकी भी अवार थी, मेरे कानों को सुखदाई ।
आग उगलती दोपहर में उस दग़िस्तानी घाटी में
मैं मरता था, मगर लोग तो, हँसते - बतियाते जाते थे,
किसी हसन की मक्कारी की, किसी अली की सूझ-बूझ की
मज़े-मज़े चर्चा करते थे, क़िस्से कह मन बहलाते थे ।
अपनी ही भाषा में सुनकर कुछ धीमी-धीमी आवाज़ें
मुझे लगा कुछ ऐसे, जैसे जान जिस्म में फिर से आए,
समझ गया मैं वैद्य, डाक्टर, मुझे न कोई बचा सकेगा
केवल मेरी अपनी भाषा, मुझे प्राण दे सके, बचाए ।
शायद और किसी को दे दे, सेहत कहीं अजनबी भाषा
पर मेरे सम्मुख वह दुर्बल, नहीं मुझे तो उसमें गाना,
और अगर मेरी भाषा के, बदा भाग्य में कल मिट जाना
तो मैं केवल यह चाहूँगा, आज, इसी क्षण ही मर जाना ।
मैंने तो अपनी भाषा को, सदा हृदय से प्यार किया है
बेशक लोग कहें, कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है,
बड़े समारिहों में इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं
मगर मुझे तो मिली दूध में, माँ के, वह तो बड़ी सबल है ।
आनेवाली नई पीढ़ियाँ, क्या अनुवादों के ज़रिये ही
समझेंगी महमूद और उसकी कविता का रंग निराला ?
क्या मैं ही वह अन्तिम कवि हूँ, जो अपनी प्यारी भाषा में
जो अवार भाषा में लिखता, उसमें छन्द बनानेवाला ।
प्यार मुझे बेहद जीवन से, प्यार मुझे सारी पृथ्वी से
उसका कोना-कोना प्यारा, प्यारा उसका साया, छाया,
फिर भी सोवियत देश अनूठा, मुझको सबसे ज़्यादा प्यारा
अपनी भाषा में उसका ही, मैंने जी भर गौरव गाया ।
बाल्टिक से ले, सख़अलीन तक, इस स्वतन्त्र खिलती धरती का
हर कोना मुझको प्यारा है, हर कोना ही मन भरमाए,
इसके हित हंसते - हंसते ही, दे दूँगा मैं प्राण कहीं भी
पर मेरे ही जन्म - गांव में, बस, मुझको दफ़नाया जाए ।
ताकि गांव के लोग कभी आ, करें क़ब्र पर चर्चा मेरी
कहें हमारी भाषा में यह, यहाँ रसूल अपना सोता है,
अपनी भाषा में ही जिसने, अपने मन - भावों को गाया
त्सादा के हमज़ात सुकवि का, अरे वही बेटा होता है ।
रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु