अपने का है गुनाह बे-गाने ने क्या किया / मोहम्मद रफ़ी 'सौदा'
अपने का है गुनाह बे-गाने ने क्या किया
इस दिल को क्या कहूँ कि दिवाने ने क्या किया
याँ तक सताना मुज को कि रो रो कहे तू हाए
यारो न तुम सुना के फ़ुलाने ने क्या किया
पर्दा तो राज़-ए-इश्क़ से ऐ यार उठ चुका
बे-सूद हम से मुँह के छुपाने ने क्या किया
आँखों की रह-बरी ने कहूँ क्या कि दिल के साथ
कूचे की उस के राह बताने ने क्या किया
काम आई कोह-कन की मशक़्क़त न इश्क़ में
पत्थर से जू-ए-शीर के लाने ने क्या किया
टुक दर तक अपने आ मेरे नासेह का हाल देख
मैं तो दिवाना था पे सियाने ने क्या किया
चाहूँ मैं किस तरह ये ज़माने की दोस्ती
औरों से दोस्त हो के ज़माने ने क्या किया
कहता था मैं गले का तेरे हो पड़ूँगा हार
देखा न गुल को सर पे चढ़ाने ने क्या किया
‘सौदा’ है बे-तरह का नशा जाम-ए-इश्क़ में
देखा कि उस को मुँह के लगाने ने क्या किया