भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने दिल में उतर कर देख ज़रा / रविंदर कुमार सोनी
Kavita Kosh से
अपने दिल में उतर कर देख ज़रा
दर बदर ढूँढ़ता कहाँ है ख़ुदा
मुतरिबा मुझको ग़म का गीत सुना
मेरे आँगन में भी हो नग़मासरा
बंद आँखें मिरी रहीं लेकिन
मरते दम तक तुझी को देखा किया
दायरे ज़िन्दगी ने लाख बनाए
हद से बाहर क़दम निकल ही गया
टूटना ही था शीशा ए दिल को
अजनबी बन के देखा आइना
थी जहाँ रास्तों को मेरी तलाश
मैं वहाँ ख़ुद ही अपनी मंज़िल था
ऐ रवि जाने क्यूँ किसी के बग़ैर
ना मुकम्मल रहा सफ़र मेरा