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अपने प्रेमगीत में अक्सर / शिवम खेरवार
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अपने प्रेमगीत में अक्सर,
दो ही बन्ध दिया करता हूँ।
उसके नाम हिया करता हूँ।
पहला उसके नाम सौंपता,
दूजा ख़ुद के नाम लिखूँ मैं,
वो मुझको पूरा करती है,
चाहूँ उसकी तरह दिखूँ मैं,
झल्ली! से चिट्ठी में दिल की,
बातें ख़ूब किया करता हूँ।
मन मेरा चातक! हो जाता,
जब शक्कर जैसे बोल सुनूँ,
चाह यही मेरे जीवन की,
उसकी वाणी अनमोल सुनूँ,
उसके दो कोमल शब्दों में,
मन भर सोम पिया करता हूँ।
'इंक' भावनाओं की भरकर,
यह कलम तीसरा बन्ध कहे,
मीत! उसी के अहसासों में,
उतरे फिर मुक्तक, छंद कहे।
सपनों की शहज़ादी; उसको,
ख़ुद में रोज़ जिया करता हूँ॥