अपने माज़ी के तसव्वुर से हिरासा हूँ मैं / साहिर लुधियानवी
अपने माज़ी<ref>बीता हुआ</ref> के तसव्वुर से हिरासा<ref>परेशान</ref> हूँ मैं
अपने गुज़रे हुए अय्यम<ref>दिन</ref> से नफ़रत है मुझे
अपनी बेकार तमन्नओं पे शर्मिंदा हूँ मैं
अपनी बेसुध<ref>बेहोश/बेखबर</ref> उम्मीदों पे निदामत है मुझे
मेरे माज़ी को अंधेरे में दबा रहने दो
मेरा माज़ी मेरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं
मेरी उम्मीदों का हासिल मेरी काचाह<ref>खोज</ref> का सिला
एक बेनाम अज़ीयत<ref>दुख</ref> के सिवा कुछ भी नहीं
कितनी बेकार उम्मीदों का सहारा लेकर
मैंने ऐवान<ref>महल</ref> सजाये थे किसी की ख़ातिर
कितनी बेरब्त<ref>अधूरी</ref> तमन्नाओं के माभम<ref>छुपे हुए</ref> ख़ाके<ref>ढांचे</ref>
अपने ख़्वाबों मे बसाये थे किसी की ख़ातिर
मुझसे अब मेरी मोहब्बत के फ़साने न पूछो
मुझको कहने दो के मैंने उन्हें चाहा ही नहीं
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गई
मैंने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं
मुझको कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ
इश्क़ नाकाम सही ज़िन्दगी नाकाम नहीं
उनको अपनाने की ख़्वाहिश उन्हें पाने की तलब
शौक़ बेकार सही सै-ग़म<ref>कहने के लिए</ref> अंजाम नहीं
वही गेसू वही नज़र वही आरिद<ref>होंठ</ref> वही जिस्म
मैं जो चाहूँ कि मुझे और भी मिल सकते हैं
वो कँवल जिनको कभी मुनके लिये खिलना था
उनकी नज़रों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं