भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने हिस्से की छत खो कर मैंने / आलोक यादव
Kavita Kosh से
अपने हिस्से की छत खो कर मैंने
रच डाले हैं बालू से घर मैंने
भरने को परवाज़<ref>उड़ान</ref> बड़ी घर छोड़ा
तन-मन कर डाला यायावर<ref>घुमन्तु</ref> मैंने
हाथ पिता का माँ का आँचल छूटा
प्यार बहन का खोया क्यूँकर मैंने
धुँआ धुँआ सारे मंज़र कर डाले
जीवन का उपहास उड़ाकर मैंने
तंज़ सहे 'आलोक' बहुत ग़ैरों के
अपनों से भी खाए पत्थर मैंने
शब्दार्थ
<references/>