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अपनों और बेगानों के बीच / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
Kavita Kosh से
बेगानों में अपनों को खोजते
अपनों को बेगानों में महसूसते
तीन साल हो गए
उठते बैठते चलते झूलते
आज हम अकेले हैं
समझ रहे हैं
अकेले ही होते हैं सब
अपनों और बेगानों के बीच
भीड़-सा है चारों तरफ
शोर और भी अधिक हो रहा है
शांति कहीं नहीं है लगभग परिवेश में
हृदय सब्र खो रहा है
सभी कह रहे हैं
हम सही नहीं हैं इन दिनों
मानते हैं सब नहीं सही हैं
इधर हम सब के बीच
अपने भी बेगाने भी
खेल रहे हैं खेल
आँख मिचौली की जैसे
हम ही दोषी किस पर उछालें कीच