अपनों से भी कुछ लोग महब्बत नहीं करते / रमेश तन्हा
अपनों से भी कुछ लोग महब्बत नहीं करते
हम वो हैं कि दुश्मन से भी नफ़रत नहीं करते।
बे-राह-रवी उन के मुक़द्दर में लिखी है
कुछ भी जो कभी हस्बे-रिवायत नहीं करते।
सायों से मफर यूँ तो नहीं दिन में भी लेकिन
सूरज से ब-हर कैफ़,शिकायत नहीं करते।
वो लोग किसी कोह को सर कैसे करेंगे
घर ही से निकलने की जो हिम्मत नहीं करते।
जब बात उसूलों पे ही आ जाये तो अक्सर
कुछ लोग तो जां की भी हिफाज़त नहीं करते।
खूं दे जिसे सींचा है उसे यूँ न गंवाओ
बरसों की रियाज़त को अकारत नहीं करते।
बरसो के गुज़रने पे भी सब रास्त मिलेंगे
हम अच्छे मज़ामीन को ग़ारत न करेंगे।
ना क़ाबिले-बर्दाश्त कोई चीज़ नहीं है
आईने किसी शय से बग़ावत नहीं करते।
वो लोग जिन्हें नाज़ है मिट्टी पे वतन की
सपने में भी परदेस की चाहत नहीं करते।
मशरिक़ के रिवाज़ और हैं मग़रिब के रिवाज़ और
हम लोग महब्बत की तिजारत नहीं करते।
तारीख ज़मानों की बदल देते है लम्हें
हम वक़्त की यूँ ही तो वकालत नहीं करते।
'तन्हा' परे-परवाज़े-तखैयुल के तसद्दुक
बे-पर कभी उड़ने की ज़सारत नहीं करते।