अपरपात / दीपा मिश्रा
कविता आ जीवनक मध्यक द्वंद्वमे
कविता जेना पराजित होइत जा रहल
समय अपन चाबुकसँ बेर बेर देहकेँ छील दैये आ हम ?
हम ओकर मुँह दुइस दैत छी
ओ आर नृशंस भऽ जाइए
ओकर सब लाथ बुझैत छी
चाहैये हम क़लम छोड़ि दी
मुदा अहीं कहू त' कोनाकेँ क़लम राखी
जकरा बिनु जीबाक कल्पनो नै कऽ सकैत छी
आ जीवन कलमकेँ धरऽ नै दैये
अजगुत ई जे बिना कोनो अपराध-बोधक ओ हमरा दिस तकैये आ हम ओकरा उठा लैत छी
बरख नै बीतल ओ कहने छलीह जे एहि बेर गंगा ज़रूर नहायब
मोने मोन सोचैत हम ठाढ़ रहलौं आ हमर हाथसँ
गंगामे प्रवाहित करैत हुनक छाउर हमरा दिसि तकैत किछु कहैत जेना हुलसैत जलमे मिझ्झर भऽ गेल
कहुनाकेँ कुहरैत पीठ कनेक सोझ भेल ताधरि फेर
समयक मारि
लहासकेँ छूबैत काल बुझाएल जेना
एहि पातकेँ टुटबासँ बचाओल जा सकैत छल
बहुतो किछु कऽ सकैत रही मुदा होइत कहाँ छै
अपनासँ लोकसँ समयसँ ओझराइत ओझराइत जिनगी आरो मसुआ जाइत छै
बाहर कतबो शीत हुए
ओलतीक आगिमे झड़कैत जाइत छै मोन
अपन हाथ अपने पकड़ैत संकोच होइत छैक जे कोनो पाप तऽ नै करय जा रहल
ओहुना पाप आ पुण्यक फेरमे आधा जीवन निकलि जाइत छैक
अपनाकेँ कसियाके पकड़ि भोकारि पारि कानऽ चाहैत छी
जीवनक जंजालसँ हम हमर कविताकेँ छोड़ेबाक प्रयास करैत छी
हाथ शोणितसँ भीज रहल
कृष्ण कतय छी अहाँ
ई चील गिद्ध अजामिल सब नोंचि खाएत ओकरा
समय हमर कविताक गरदनि मोकबाक प्रयास करैये
ओह!एकटा अपरपातकेँ भोगि रहल छी कहीं ई काल हमर कविताक सेहो अपरपात
त' नहि!