अपरिभाषित / गौरव गिरिजा शुक्ला
बहुत दिनों से लग रहा था
कि कुछ लिख दूँ तुम पर,
लेकिन हर बार
इस मुश्किल में फँस जाता हूँ
कि क्या लिखूं और कितना लिखूं
कुछ बातों को
शब्दों में परिभाषित करना
बहुत कठिन होता है,
जैसे तुम्हारे जिस्म की खूबसूरती तो लिख सकता हूँ,
लेकिन तुम्हारे आत्मा की सुंदरता
बयां करने के लिए शब्द नहीं है,
तुम्हारी समझदारी लिख भी लूँ शायद,
लेकिन नादानियां बयाँ करने के लिए शब्द नहीं है,
तुमको कब सोचता हूँ बता सकता हूँ,
और कब नहीं, ये बताने के लिए शब्द नहीं है,
तुम बहुत अच्छी दोस्त हो मेरी ये कह सकूँ शायद,
लेकिन कितनी अच्छी ये समझाने के लिए शब्द नहीं है,
तुमसे मिलकर क्या मिला ये बता सकता हूँ,
तुम्हारे जाने से क्या हुआ
ये बयाँ करने के लिए शब्द नहीं है,
इसलिए...कई बार सोचा...मगर
हर बार कागज़ का वो टुकड़ा सफ़ेद ही रहा,
मैं लिख न सका एक अक्षर भी...
और शायद कभी लिख भी न पाऊँ...
इसलिए वो कागज़ सफ़ेद ही रहेगा...
जब भी तुम एक सफ़ेद कागज़ का टुकड़ा देखो,
ये समझ लेना मैंने कुछ लिखा है तुमको,
चाँद,तारे, फूल, आकाश, नदियां, पहाड़, समंदर से लेकर
हाथों की लकीरें, नसीब और नियति तक...
सब कुछ लिखा मान लेना तुम,
जोड़ लेना हर एक अक्षर
बना लेना अपने हिसाब से कोई वाक्य
अच्छे मन में अच्छा और बुरे में बुरा
फिर पढ़ लेना उन हर्फ़ों को,
और जान लेना कि ये मैंने लिखा है तुमको,
सिर्फ़ तुम्हारे लिए