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अपवित्र नदी / सिद्धेश्वर सिंह
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फूली हुई सरसों के
खेतों के ठीक बीच से
सकुचाकर निकलती है कर्मनाशा की पतली धारा ।
कछार का लहलहाया पीलापन
भूरे पानी के शीशे में
अपनी शक्ल पहचानने की कोशिश करता है ।
धूप में तांबे की तरह चमकती है
घाट पर नहाती हुई स्त्रियों की देह ।
नाव से हाथ लपकाकर
एक एक अंजुरी जल उठाते हुए
पुरनिया - पुरखों को कोसने लगता हूं मैं -
क्यों - कब - कैसे कह दिया
कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !
भला बताओ
फूली हुई सरसों
और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में
कोई भी नदी
आख़िर कैसे हो सकती है अपवित्र ?