अपशगुन / शबरी / अमरेन्द्र

हे गुरू, ऊ स्वप्न केन्होॅ घोर,
सच हुऐ नै पारेॅ, करिया भोर!

सब दिशाहे घूरतें जों प्रेत,
आगिनोॅ केॅ छै उड़ैतेॅ रेत।

सुखलोॅ कुइयां पोखरो, घट-घाट,
छै रसातल में धसैलोॅ पाट।

टूटलोॅ छै वेदी रोॅ सब भोर,
डैनियो सेॅ क्रूर करिया भोर।

ब्रह्मबेला मेॅ कपसवोॅ-शोर,
की अघट लैये केॅ ऐतै भोर।

हे गुरू ई केन्होॅ करिया घोर,
आँख में पत्थर बनी छै लोर।

भोर के ई वक्तिये मेॅ
के विकट सम्वाद दै छै,

साधना के ही क्षणोॅ मेॅ
अस्त्र फेकी प्राण लै छै?

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