भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपशगुन / शबरी / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
हे गुरू, ऊ स्वप्न केन्होॅ घोर,
सच हुऐ नै पारेॅ, करिया भोर!
सब दिशाहे घूरतें जों प्रेत,
आगिनोॅ केॅ छै उड़ैतेॅ रेत।
सुखलोॅ कुइयां पोखरो, घट-घाट,
छै रसातल में धसैलोॅ पाट।
टूटलोॅ छै वेदी रोॅ सब भोर,
डैनियो सेॅ क्रूर करिया भोर।
ब्रह्मबेला मेॅ कपसवोॅ-शोर,
की अघट लैये केॅ ऐतै भोर।
हे गुरू ई केन्होॅ करिया घोर,
आँख में पत्थर बनी छै लोर।
भोर के ई वक्तिये मेॅ
के विकट सम्वाद दै छै,
साधना के ही क्षणोॅ मेॅ
अस्त्र फेकी प्राण लै छै?